
🎬 राणा नायडू सीजन 2 रिव्यू: गालियों से सजी, क्राइम में लिपटी और स्टार पॉवर से भरी यह सीरीज क्या वाकई ओटीटी का तुरुप का इक्का है?
नेटफ्लिक्स पर वापस लौटी सीरीज ‘राणा नायडू’ का दूसरा सीजन एक बार फिर से चर्चाओं में है। पहला सीजन जितना विवादों में रहा, उतना ही ज्यादा देखा भी गया। चाहे शो में गालियों की भरमार हो या रिश्तों की उथल-पुथल, इस सीरीज ने दर्शकों को बांध कर रखा। दूसरे सीजन में यह फिर से कोशिश कर रही है कि दर्शकों को अपने अनोखे अंदाज़ से बांधे रखे, लेकिन क्या इस बार यह कोशिश सफल होती है?
📺 पहले जैसे ही हैं तेवर, लेकिन कहानी में नहीं दिखती नयापन
‘राणा नायडू सीजन 2’ भी उसी पिच पर खेलता है जहां से पहला सीजन खत्म हुआ था—क्राइम, ड्रामा, पर्सनल रिवेंज और क्रिकेट की दुनिया के पीछे छिपे अंधेरे राज। ये सीरीज एक विदेशी शो का देसी अडॉप्शन है लेकिन लेखन और स्क्रिप्ट की कमजोरी साफ नजर आती है। मुंबई में रहने वाले लेखकों ने दुनिया देख ली, लेकिन भारत की जमीनी हकीकत से जैसे उनका कोई लेना-देना नहीं रहा। कहानी एक काल्पनिक दुनिया में तैरती रहती है और इसे असलियत के करीब लाने की हर कोशिश लड़खड़ा जाती है।
👤 राणा दग्गूबाती चमकते हैं, लेकिन सह कलाकार छूटते हैं पीछे
इस सीजन की सबसे बड़ी ताकत राणा दग्गूबाती हैं। उनका स्क्रीन प्रेजेंस और स्टाइल एंटी-हीरो के रूप में आकर्षक है। वहीं वेंकटेश की परफॉर्मेंस कुछ जगहों पर ओवरएक्टिंग जैसी लगती है और दर्शकों को खटक सकती है। सुशांत सिंह और अभिषेक बनर्जी जैसे टैलेंटेड एक्टर्स को स्क्रिप्ट उतना मौका नहीं देती जितना मिलना चाहिए था। सुरवीन चावला, इशिता अरुण और डीनो मोरिया जैसे कलाकारों की परफॉर्मेंस ठीक-ठाक हैं लेकिन वो कहानी को बहुत ऊपर नहीं उठा पाते।

🎥 क्रिकेट, क्राइम और करिश्मे की मिक्स प्लेट लेकिन स्वाद अधूरा
निर्देशक करण अंशुमन, सुपर्ण वर्मा और अभय चोपड़ा ने इस बार राजनीति, क्रिकेट और फिल्म इंडस्ट्री की अंदरूनी परतों को एक साथ मिक्स करने की कोशिश की है। पर हर स्वाद को एक साथ डाल देने से डिश बेहतर नहीं हो जाती, और यही इस सीरीज के साथ हुआ है। लेखक और डायरेक्टर की टीम ने शायद ‘मिर्जापुर’, ‘इनसाइड एज’ और ‘सेक्रेड गेम्स’ जैसे शोज़ से बहुत प्रेरणा ली है, लेकिन ‘राणा नायडू’ की अपनी एक ठोस पहचान बनाना भूल गए।
💣 रऊफ मिर्जा और आलिया ओबेरॉय: दो नए ट्विस्ट, लेकिन कितने असरदार?
इस बार दो नए किरदार शो में जान डालने की कोशिश करते हैं—अर्जुन रामपाल गैंगस्टर रऊफ मिर्जा के रूप में और कृति खरबंदा आलिया ओबेरॉय के रोल में। रामपाल का किरदार जितना हिंसक है, उतना ही इंटेंस भी। कृति के किरदार में रिश्तों की जटिलता है लेकिन उनके कैरेक्टर की डेप्थ स्क्रिप्ट में मिसिंग है। आलिया को फिल्म स्टूडियो की मालकिन की बेटी दिखा देना लेखन की आसानी को दिखाता है, न कि गहराई को।
📉 फिक्शन और रियलिटी के बीच की लड़खड़ाहट
नेटफ्लिक्स पर कंटेंट की बाढ़ है और दर्शकों की उम्मीदें भी बहुत ज्यादा हैं। इस सीरीज में सब कुछ है—सेक्स, गाली, मर्डर, धोखा, ग्लैमर और स्टाइल—लेकिन कहानी का वो दिल नहीं है जो दर्शकों को शो से जोड़ सके। शो के अधिकतर किरदार ग्रे शेड में हैं और कहानी में कोई ऐसा हीरो नहीं जो दर्शकों की सहानुभूति जीत सके।
🎭 संवाद, संवेदना और सिनेमैटिक स्टाइल—तीनों का संतुलन बिगड़ा
‘राणा नायडू सीजन 2’ में संवाद और इमोशन के स्तर पर बहुत कुछ खोया गया है। केवल गालियों और ग्राफिक प्रजेंटेशन के सहारे क्राइम ड्रामा सफल नहीं हो सकता। इस सीजन की सबसे बड़ी दिक्कत यही है—स्टाइल बहुत है लेकिन सब्स्टेंस कम है। स्क्रिप्ट जैसी चलती है, दर्शक पहले ही समझ लेते हैं कि आगे क्या होने वाला है। इसका मतलब है कि सरप्राइज और थ्रिल का तत्व भी बहुत कमजोर है।
✅ क्यों देखें?
अगर आप क्राइम, फैमिली ड्रामा और गंदी दुनिया की ग्रे कहानी देखने के शौकीन हैं और राणा दग्गूबाती के फैन हैं, तो आप इस सीजन को एक मौका दे सकते हैं। ‘राणा नायडू सीजन 2’ का मकसद साफ है—ओटीटी व्यूअरशिप को क्राइम, सेक्स और स्टार पॉवर से बांधकर रखना। लेकिन कंटेंट की गुणवत्ता के मामले में यह सीरीज ‘मिर्जापुर’ या ‘सेक्रेड गेम्स’ जैसी सफल सीरीज के मुकाबले काफी पीछे है। इसमें कोई शक नहीं कि राणा दग्गूबाती ने अपनी ओर से पूरी कोशिश की है, लेकिन स्क्रिप्ट और निर्देशन का ढीलापन इस शो को एवरेज से ऊपर नहीं जाने देता।