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फतेहपुर मकबरा विवाद: जमीन का मामला या राजनीति की चाल? जांच से खुलेगा सच - The Indian Exposure

फतेहपुर मकबरा विवाद: जमीन का मामला या राजनीति की चाल? जांच से खुलेगा सच

देशभर में सुर्खियों में बना आबूनगर स्थित फतेहपुर मकबरा विवाद लगातार चर्चा का विषय बना हुआ है। यह विवाद अचानक कैसे उभरा, इसके पीछे की वजहें क्या हैं और इसमें कौन-कौन से राजनीतिक और जमीन से जुड़े हित शामिल हैं, इस पर सवाल खड़े हो रहे हैं। मकबरा पहले मंदिर था या नहीं, यह दावा कितना मजबूत है, यह तो जांच के बाद ही साफ हो पाएगा। लेकिन जिस तेजी और पैमाने पर चार दिन के अंदर इस पूरे मामले को आगे बढ़ाया गया, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कहीं न कहीं इसमें किसी बड़ी योजना और रणनीति की तैयारी चल रही है।

मकबरे और उसके आसपास की जमीन का विवाद केवल धार्मिक भावनाओं तक सीमित नहीं रह गया है। मंदिर या मकबरे के नाम पर करोड़ों की भूमि और उसके आर्थिक महत्व ने इस मामले को और जटिल बना दिया है। स्थानीय लोगों का कहना है कि विवाद की आग कहाँ से भड़की, अगर इसका पता चल जाए, तो कई चेहरे बेनकाब हो सकते हैं। आबूनगर के रेड़इया मोहल्ले में मकबरे को लेकर जब विवाद उभरा, तो मोहल्ले के लोग पक्ष और विपक्ष में खड़े हो गए। कुछ लोग यह साबित करने की कोशिश कर रहे थे कि यहां पहले मंदिर था, वहीं कुछ लोग मकबरे के 350 साल पुराने इतिहास का हवाला दे रहे थे।

राजस्व दस्तावेजों की जानकारी के अनुसार, वर्ष 2012 में मकबरे का नाम खतौनी में दर्ज किया गया था। इससे पहले मकबरे और ठाकुर द्वारे के नाम पर दर्ज भूमि की बिक्री की जा चुकी थी। मकबरे के पास बेशकीमती जमीन के कारण पहले से ही कई भूमाफिया सक्रिय रहे हैं। इस विवाद में अचानक उभरी भीड़ में ऐसा नहीं था कि कोई स्वतः ही पहल कर रहा हो; इसके पीछे राजनीतिक चेहरों की भूमिका नजर आई।

कर्पूरी ठाकुर चौराहा के समीप भीड़ जुटाने के आह्वान में सबसे बड़ी भूमिका भाजपा जिलाध्यक्ष मुखलाल पाल की रही। इसके अलावा, पूर्व विधायक, पूर्व अध्यक्ष और विहिप के पदाधिकारी भी प्रमुख रूप से शामिल रहे। पर्दे के पीछे संघ के एक बड़े नेता का नाम भी सामने आया। भीड़ में आए लोग तो मंदिर की अपनी मंशा लिए हुए थे, लेकिन कुछ ऐसे चेहरे भी थे जो अपने राजनीतिक और आर्थिक हित साधने के लिए स्थिति का फायदा उठा रहे थे। मकबरे में तोड़फोड़ के बाद विवाद और भी भड़क गया। इस घटना के बाद जिलाध्यक्ष पर विपक्ष और संगठन दोनों ही सवाल उठा रहे हैं।

इतना बड़ा कदम उठाने से पहले किसी बैठक का आयोजन न करना और मठ-मंदिर संरक्षण संघर्ष समिति का अचानक गठन करना सवाल खड़ा करता है। यही सोचने को मजबूर करता है कि यह आग किसने और कैसे लगाई। जांच से ही यह स्पष्ट होगा कि कौन-कौन सी राजनीतिक और व्यक्तिगत हित इस पूरे विवाद में शामिल हैं।

राजनीतिक प्रतिक्रियाएं भी जोर पकड़ रही हैं:

  • मुखलाल पाल, भाजपा जिलाध्यक्ष – “हमारा दावा है कि आबूनगर के रेड़इया मोहल्ला स्थित प्राचीन ठाकुर द्वारे मंदिर पर है, जिसे मकबरा कहा जा रहा है। वहां किसकी और कितनी भूमि है, इसका मकसद केवल मंदिर का संरक्षण है।”
  • सुरेंद्र सिंह यादव, सपा जिलाध्यक्ष – “भाजपाई वहां की कीमती भूमि हथियाना चाहते हैं। तोड़फोड़ करने वालों की गिरफ्तारी न होना यह साबित करता है कि घटना में शासन-प्रशासन की मिलीभगत है।”
  • महेश द्विवेदी, कांग्रेस जिलाध्यक्ष – “मकबरे में तोड़फोड़ दुर्भाग्यपूर्ण है और गंगा-यमुनी संस्कृति के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की गई।”
  • वीरप्रकाश लोधी, बसपा जिलाध्यक्ष – “इस मामले ने समाज में तनाव पैदा किया है और धार्मिक व सांस्कृतिक भावना को चोट पहुंचाई है।”

विशेषज्ञों और स्थानीय लोगों का मानना है कि यह मामला केवल धार्मिक विवाद या भूमि का झगड़ा नहीं है, बल्कि इसमें राजनीतिक और व्यक्तिगत हितों की भी गहरी भूमिका है। जिस तरह से चार दिन के भीतर मामले को तेज़ी से आगे बढ़ाया गया और विभिन्न राजनीतिक दलों ने इसे अपनी एजेंडा का हिस्सा बना लिया, उससे यह स्पष्ट होता है कि इस विवाद के कई स्तर हैं।

जांच और सत्यापन के बाद ही यह साफ होगा कि मकबरा पहले मंदिर था या नहीं, जमीन का असली मालिक कौन है और इस पूरे विवाद के पीछे किन राजनीतिक और आर्थिक चेहरों का हाथ है। फिलहाल आबूनगर और आसपास के इलाके में तनाव और राजनीतिक सरगर्मी बनी हुई है, जिससे यह मामला आने वाले दिनों में और गंभीर रूप लेने की संभावना रखता है।

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