
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन के कारण बनने वाले प्राकृतिक बांध और उनसे बनी झीलें कोई नई बात नहीं हैं। इनका इतिहास सैकड़ों साल पुराना है। कभी ये झीलें प्राकृतिक रूप से बनती और टूट जाती हैं, तो कभी इनका टूटना भीषण बाढ़ और तबाही का कारण बनता है। हाल ही में आईआईटी रुड़की के वैज्ञानिकों ने एक अंतरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित शोध रिपोर्ट के जरिए राज्य के सामने खड़े इस गंभीर खतरे की ओर इशारा किया है।
वैज्ञानिकों का बड़ा खुलासा
आईआईटी रुड़की के वैज्ञानिक श्रीकृष्ण शिवा सुब्रहम्णयम और शिवानी जोशी द्वारा किए गए अध्ययन में यह सामने आया है कि पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन से बने प्राकृतिक बांध भविष्य में विनाशकारी आपदाओं का रूप ले सकते हैं। जब भारी भूस्खलन किसी नदी के बहाव को रोक देता है, तो वहां पानी इकट्ठा होकर एक झील का निर्माण कर लेता है। यह झील देखने में भले सुंदर लगे, लेकिन जब यह अचानक टूटती है तो भूस्खलन झील विस्फोट बाढ़ (Landslide Lake Outburst Flood – LLOF) का कारण बनती है। ऐसी स्थिति में नदी के निचले इलाकों में बसे गांव और कस्बे भारी तबाही का सामना करते हैं। हाल के वर्षों में उत्तरकाशी के स्यानाचट्टी और उत्तरकाशी-गंगोत्री हाईवे के पास धराली क्षेत्र में ऐसी घटनाएं प्रत्यक्ष रूप से देखी गई हैं।
चमोली सबसे संवेदनशील
शोध रिपोर्ट बताती है कि उत्तराखंड की संकरी घाटियां, कमजोर चट्टानें और भूकंपीय गतिविधियां इस क्षेत्र को भूस्खलन और भूस्खलन से बने बांधों के लिए अत्यधिक संवेदनशील बनाती हैं। विशेषकर अलकनंदा नदी घाटी और चमोली जिला इस खतरे से सबसे अधिक प्रभावित रहा है। इतिहास गवाह है कि 1893 में अलकनंदा नदी पर बने गोहना ताल ने 1970 में टूटकर हरिद्वार तक विनाशकारी बाढ़ ला दी थी।
सैकड़ों वर्षों से चलता आ रहा सिलसिला
1857 से 2018 के बीच उत्तराखंड में कई भूस्खलन बांध बनने और टूटने की घटनाएं दर्ज की गई हैं। अध्ययन के अनुसार, अगस्त माह में सबसे अधिक भूस्खलन बांध बने हैं। इनमें से 28 प्रतिशत घटनाएं मलबे के खिसकने से, 24 प्रतिशत पत्थरों के गिरने से और लगभग 20 प्रतिशत मलबे के बहाव से हुईं। ज्यादातर घटनाएं मानसून के महीनों (जुलाई-अगस्त-सितंबर) में दर्ज की गईं, जब भारी बारिश ने भूस्खलन को बढ़ावा दिया। चमोली, रुद्रप्रयाग और उत्तरकाशी जिले इनमें सबसे ज्यादा प्रभावित रहे हैं।
हजारों साल पुराना इतिहास
वैज्ञानिकों ने शोध में यह भी पाया है कि पिछले 5,000 से 14,000 वर्षों के बीच अलकनंदा और धौलीगंगा घाटियों में कई प्राचीन भूस्खलन झीलें बनी थीं। इन झीलों की पहचान ऑप्टिकल स्टिम्युलेटेड ल्यूमिनेसेंस (OSL) तकनीक, पराग विश्लेषण, चुम्बकीय गुणों और रासायनिक परीक्षणों के आधार पर की गई। यह भी पाया गया कि समय के साथ कई झीलें स्वयं टूटकर बह गईं, जबकि कुछ लंबे समय तक अस्तित्व में बनी रहीं।
जलवायु परिवर्तन और विकास कार्यों से बढ़ा खतरा
रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि जलवायु परिवर्तन के कारण राज्य में वर्षा की तीव्रता और बादल फटने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। इससे भूस्खलन की घटनाएं भी बढ़ी हैं। इसके अलावा, पहाड़ी इलाकों में सड़कों का चौड़ीकरण, सुरंग निर्माण और जल विद्युत परियोजनाएं इस संवेदनशील भूगोल पर अतिरिक्त दबाव डाल रही हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर समय रहते जरूरी कदम नहीं उठाए गए, तो आने वाले वर्षों में उत्तराखंड को और भी बड़ी आपदाओं का सामना करना पड़ सकता है।
ऐतिहासिक झील-बांध घटनाएं
इतिहास पर नजर डालें तो 1857 से लेकर 2018 तक कई प्रमुख भूस्खलन बांध दर्ज किए गए हैं। इनमें से कुछ घटनाएं इस प्रकार हैं:
- 1857 – मंदाकिनी नदी पर भूस्खलन से बांध बना, जो मात्र तीन दिन में टूट गया।
- 1868 – अलकनंदा नदी पर अस्थायी बांध बना।
- 1893 – अलकनंदा नदी पर विशाल गोहना ताल का निर्माण हुआ, जो 1894 में पहली बार टूटा और 1970 में दोबारा टूटा, तब हरिद्वार तक तबाही हुई।
- 1930 से 1979 – अलकनंदा, धौलीगंगा, ऋषिगंगा और अन्य सहायक नदियों पर कई अस्थायी बांध बने और टूटे।
- 1998 – मंदाकिनी और काली नदी पर भूस्खलन झीलें बनीं, जिनमें से काली नदी का बांध मात्र 12 घंटे में टूट गया।
- 2013 – मधमहेश्वर क्षेत्र में चट्टान गिरने से झील बनी।
- 2018 – बावरा गाड (पिंडर नदी सहायक) पर बना बांध आज भी अस्तित्व में है, जबकि सोंग नदी पर बना बांध सात घंटे में टूट गया।
निष्कर्ष
उत्तराखंड के लिए भूस्खलन से बनी झीलें सौंदर्य का प्रतीक नहीं, बल्कि आपदा का संकेत हैं। ये झीलें राज्य की भौगोलिक नाजुकता और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का स्पष्ट उदाहरण हैं। वैज्ञानिकों ने सरकार और नीति निर्माताओं को चेताया है कि यदि समय रहते प्रभावी नीतियां और ठोस कार्ययोजना नहीं बनाई गईं, तो भविष्य में इन झीलों का टूटना बड़े पैमाने पर जनहानि और विनाश का कारण बन सकता है।