
इन दिनों भाजपा अपने सांसदों-विधायकों की जमीनी पकड़ का आकलन करने को सर्वे करा रही है। नमो एप के जरिये किए जा रहे जनमन सर्वे में वर्तमान सांसदों के बारे में फीडबैक लिया जा रहा है कि वे अपने क्षेत्र में कितने सक्रिय हैं, कार्यकर्ताओं और आम जन के बीच छवि कैसी है, केंद्र व राज्य सरकार की योजनाओं को लेकर कितने सजग हैं।
प्रत्याशी चयन में भाजपा अक्सर चौंकाती है और यही बात सिटिंग सांसदों की फिक्र बढ़ा सकती है। विधायकों के सर्वे को लेकर जानकारी यह है कि लगभग डेढ़ दर्जन की परफार्मेंस को लेकर रिपोर्ट ठीकठाक नहीं है। वैसे, अभी अगले विधानसभा चुनाव को खासा वक्त है, इस अवधि में वे अपना रिपोर्ट कार्ड सुधार सकते हैं। अलबत्ता, इतना जरूर है कि इस श्रेणी में आने वाले विधायक अगर मंत्रिमंडल की खाली चार सीटों की ओर देख रहे हैं, तो उन्हें मन मसोसकर ही रह जाना पड़ेगा।
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय का साइड इफेक्ट यह भी दिख रहा है कि अब नेता लोकसभा चुनाव लड़ने को लेकर अधिक दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। कांग्रेस में अमूमन संगठन के बजाय नेता आधारित चुनाव ही अधिक लड़े जाते रहे हैं।
यहां बड़े-बड़े क्षत्रप अपनी सीटों पर वर्चस्व रखते हैं। यानी एक क्षत्रप, एक सीट। अलग राज्य बनने के बाद से ही देखें तो नारायण दत्त तिवारी से लेकर हरीश रावत, सतपाल महाराज और विजय बहुगुणा पार्टी के इस श्रेणी के नेताओं में शुमार किए जा सकते हैं। अब महाराज और बहुगुणा तो भाजपा का हिस्सा बन चुके हैं। बचे हरीश रावत, वह अब भी पूरी शिददत से जुटे हैं। एकमात्र रावत ही हैं, जिनके बारे में कहा जा सकता है कि वह हर हालत में लोकसभा चुनाव के लिए मैदान में उतरेंगे। बाकी तो वेट एंड वाच की मुद्रा में हैं।