
लोकसभा सांसद निशिकांत दुबे के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान बेहद अहम टिप्पणी की। अदालत ने कहा कि वह किसी भी स्थिति में राष्ट्रपति को कोई आदेश नहीं दे सकती, क्योंकि पहले ही अदालत पर पक्षपात और दखल देने के आरोप लगाए जा रहे हैं। कोर्ट ने इस मामले में याचिकाकर्ता की मांग को लेकर अपनी गंभीर चिंता जताई और कहा कि संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा और संतुलन बनाए रखना बेहद ज़रूरी है। दरअसल, यह मामला लोकसभा सांसद निशिकांत दुबे से जुड़ा है, जिसमें कुछ याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट से राष्ट्रपति को हस्तक्षेप का निर्देश देने की अपील की थी। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने साफ कहा कि न्यायपालिका का दायित्व संविधान की सीमाओं में रहकर न्याय करना है, न कि कार्यपालिका या राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक प्रमुख को आदेश देना। कोर्ट ने कहा, “हम पहले ही आरोप झेल रहे हैं कि कोर्ट राजनीतिक मामलों में दखल देता है। ऐसे में यदि हम राष्ट्रपति को आदेश देंगे तो यह संवैधानिक संतुलन और मर्यादा के विरुद्ध होगा। अदालत का काम कानून की व्याख्या करना है, न कि कार्यपालिका के कामकाज में हस्तक्षेप करना।” इस टिप्पणी के साथ ही कोर्ट ने मामले की अगली सुनवाई के लिए पक्षकारों से उचित दस्तावेज और स्पष्टीकरण पेश करने का निर्देश दिया। अदालत ने यह भी कहा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर संवैधानिक संस्था की अपनी भूमिका होती है और उस व्यवस्था का सम्मान करना अनिवार्य है।सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी न केवल निशिकांत दुबे मामले को नई दिशा दे सकती है, बल्कि भविष्य में न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन को लेकर भी एक अहम उदाहरण बनेगी। फिलहाल राजनीतिक गलियारों में भी इस बयान की चर्चा जोरों पर है, और कानूनी विशेषज्ञ इसे एक महत्वपूर्ण संवैधानिक संकेत मान रहे हैं।अब इस मामले में आगे की सुनवाई में क्या होता है, इस पर सबकी निगाहें टिकी रहेंगी।