
देहरादून। उत्तराखंड में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव की तैयारियां शुरू से ही विवादों में घिरी रही हैं। चुनाव की प्रक्रिया को लेकर शासन की कार्यशैली पर न केवल सवाल खड़े हो रहे हैं, बल्कि अब मामला उच्च न्यायालय की चौखट तक पहुंच चुका है। पंचायत चुनावों की समयसीमा पहले ही पार हो चुकी थी, इसके बावजूद शासन ने बिना आरक्षण संबंधी नियमावली की अधिसूचना (गजट नोटिफिकेशन) जारी किए आरक्षण लागू कर दिया, जो चुनाव प्रक्रिया को संविधानिक रूप से संदेह के घेरे में लाने वाला कदम माना जा रहा है। इस प्रक्रिया पर अब हाईकोर्ट से अंतरिम रोक लग चुकी है।
आरक्षण व्यवस्था पर उठे सवाल
उत्तराखंड पंचायत संगठन के संयोजक जगत मार्तोलिया ने स्पष्ट रूप से कहा है कि पंचायत चुनाव में आरक्षण व्यवस्था लागू करने के दौरान संविधान की मूल भावना की अवहेलना की गई है। उन्होंने बताया कि आरक्षण के लिए जो रोस्टर प्रणाली अपनाई गई, वह समावेशी नहीं है और इसका लाभ अंतिम पंक्ति के व्यक्ति तक नहीं पहुंच पाया। इसके स्थान पर शासन ने पुराने रोस्टर को रद्द कर नई प्रणाली से आरक्षण सूची बना दी, जिससे कई वर्गों को उनका उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया।
जगत मार्तोलिया का यह भी कहना है कि यह पहला अवसर है, जब चुनाव अधिसूचना जारी होने के बाद उच्च न्यायालय ने संपूर्ण चुनाव प्रक्रिया पर रोक लगा दी है। इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि शासन द्वारा मनमाने तरीके से आरक्षण लागू करने की मंशा पर न्यायपालिका ने प्रश्नचिन्ह लगाया है।
हाईकोर्ट में आज अहम सुनवाई
आरक्षण व्यवस्था में विसंगतियों को लेकर याचिकाकर्ता मुरारी लाल खंडेवाल द्वारा दाखिल की गई याचिका पर आज उत्तराखंड हाईकोर्ट में अहम सुनवाई होनी है। खंडेवाल का आरोप है कि चक्रीय आरक्षण क्रम (roster cycle) को तोड़कर इसे राजनीतिक लाभ और वर्ग विशेष के हित में इस्तेमाल किया गया है। साथ ही, शासन द्वारा आरक्षण की दो अलग-अलग व्यवस्थाएं बना दी गईं हैं, जो संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन करती हैं।
पंचायतों में प्रशासकों की नियुक्ति पर भी उठे सवाल
भाकपा माले के प्रदेश सचिव इंद्रेश मैखुरी ने पंचायतों में प्रशासक नियुक्त करने की शासन की प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए कहा कि पहले प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मचारियों को पंचायतों का प्रशासक नियुक्त करने का निर्णय लिया गया, लेकिन बाद में शासन ने यू-टर्न लेते हुए निवर्तमान पंचायत प्रतिनिधियों को ही प्रशासक बना दिया। यह निर्णय भी राज्य के पंचायत इतिहास में अभूतपूर्व और असामान्य है।
तीन हजार से अधिक आपत्तियां, समाधान अधर में
जानकारों के अनुसार, जिला स्तर पर आरक्षण व्यवस्था को लेकर 3000 से अधिक आपत्तियां दर्ज की गई हैं। इन आपत्तियों के निस्तारण में भी प्रशासन पर लापरवाही के आरोप लग रहे हैं। कहा जा रहा है कि अधिकांश आपत्तियों का निपटारा नियमानुसार नहीं किया गया, जिससे जनता में व्यापक असंतोष फैल गया है।
शासन की सफाई: अधिसूचना प्रक्रिया गतिमान
इस पूरे प्रकरण पर चंद्रेश कुमार, सचिव पंचायतीराज का कहना है कि त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों में आरक्षण व्यवस्था से संबंधित गजट अधिसूचना की प्रक्रिया गतिमान है। इसे जल्द ही जारी कर उच्च न्यायालय में प्रस्तुत किया जाएगा ताकि पूरी स्थिति न्यायालय के समक्ष रखी जा सके और आवश्यक न्यायिक मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सके।
हो सकता है आरक्षण लागू करने की प्रक्रिया दोबारा
विशेषज्ञों का मानना है कि यदि उच्च न्यायालय चुनाव पर लगी रोक को हटा भी देता है, तो शासन को आरक्षण लागू करने की पूरी प्रक्रिया को नए सिरे से करना पड़ सकता है। चूंकि अधिसूचना के बिना आरक्षण लागू किया गया था, यह प्रक्रिया संवैधानिक मानकों पर खरा नहीं उतर रही है। उत्तराखंड में पंचायत चुनावों को लेकर न केवल प्रशासन की तैयारी पर प्रश्नचिन्ह लगे हैं, बल्कि आरक्षण व्यवस्था की पारदर्शिता, वैधानिकता और न्यायसंगत प्रक्रिया पर भी गंभीर बहस खड़ी हो गई है। अब सबकी निगाहें उत्तराखंड हाईकोर्ट की आज की सुनवाई पर टिकी हैं, जो पंचायत चुनावों के भविष्य की दिशा तय कर सकती है।