
धराली गांव के 45 वर्षीय होटल व्यवसायी संजय सिंह पंवार अपने जीवन में आपदाओं का सामना करने के आदी हो चुके थे। 1991 का विनाशकारी भूकंप, 2013 की तबाही भरी बाढ़ और 2018 की प्राकृतिक आपदा—इन तीनों से गुज़रते हुए उन्होंने जीवन को फिर से पटरी पर लाने की कोशिश की। लेकिन 5 अगस्त 2025 की दोपहर उन्होंने जो खौफनाक मंजर अपनी आंखों से देखा, वह उनके जीवन का सबसे भयावह और दर्दनाक अनुभव बन गया।
संजय कहते हैं, “हम सीमांत क्षेत्र में रहते हैं, खतरे का अंदाजा हमेशा रहता है, लेकिन कभी सोचा नहीं था कि धराली बाजार की पहचान को मैं अपनी आंखों के सामने मिटते देखूंगा।”
होटल और खेत—परिवार की जिंदगी की रीढ़
जब संजय महज 12 साल के थे, उनके पिता अमर चंद पंवार ने खेती के साथ-साथ धराली बाजार में एक होटल और रेस्टोरेंट का निर्माण कराया। यहीं से परिवार के बेहतर भविष्य की नींव पड़ी। होटल के संचालन में उनके छोटे भाई जयदेव पंवार भी बराबर का हाथ बंटाते थे। होटल के पीछे 70 वर्षीय मां गोदांबरी देवी पांच नाली जमीन पर राजमा और मौसमी सब्जियां उगाती थीं। हर साल लगभग दो कुंतल राजमा और ताज़ी सब्जियां बेचकर मां करीब डेढ़ लाख रुपये कमा लेती थीं। इन्हीं पैसों से छह भाई-बहनों की पढ़ाई और परवरिश हुई।
खीरगंगा का रौद्र रूप
5 अगस्त की दोपहर करीब 1:25 बजे, संजय होटल से गांव की ओर जा रहे थे कि अचानक मुखवा गांव की तरफ से सीटियां बजने की आवाज़ गूंजने लगी। पहले तो उन्हें लगा कि शायद भारी बारिश से तेलगाड का जलस्तर बढ़ गया है, लेकिन कुछ ही मिनटों में खीरगंगा के ऊपरी हिस्से से काला पानी, धुएं जैसा मलबा और तेज गर्जना के साथ मलबे का सैलाब नीचे उतरने लगा।
उस समय होटल के अंदर छोटा भाई जयदेव पंवार और छह कर्मचारी मौजूद थे। सीटियों की आवाज़ सुनते ही सबने अलग-अलग रास्तों से चट्टानों की ओर भागकर जान बचाने की कोशिश की। भागते हुए संजय ने अपनी आंखों से एक तीन मंजिला भवन, धर्मशाला और आंगनबाड़ी केंद्र को मिट्टी में समाते देखा।
“उस वक्त ऐसा लग रहा था मानो मौत हमारे सामने नाच रही हो,” संजय बताते हैं।
राहत और रात का डर
करीब दो घंटे बाद आईटीबीपी के जवान वहां पहुंचे और संजय समेत लगभग 30-40 लोगों को कोंपाग ले गए। रात भर गांव के लोग आग जलाकर खुले आसमान के नीचे बैठे रहे और सोमेश्वर देवता से सुरक्षा की प्रार्थना करते रहे।
सपनों का ढेर बना मलबा
अगली सुबह जब संजय अपने होटल लौटे, तो वहां केवल मिट्टी का ढेर बचा था—
ना कमरे थे, ना रेस्टोरेंट, ना कभी के सपनों की कोई पहचान। होटल, रेस्टोरेंट, कार, सेब की ग्रेडिंग मशीन, खेत—सबकुछ मलबे में समा गया। उनके स्कूल के प्रमाणपत्र और जरूरी दस्तावेज भी हमेशा के लिए दब गए।
भविष्य की चिंता
अब संजय के सामने बच्चों की पढ़ाई, रोज़मर्रा का खर्च और चार माह बाद होने वाली छोटी बहन की शादी जैसे कई संकट खड़े हैं। वे कहते हैं—
“आज तक की सबसे बड़ी चुनौती अब है कि नए सिरे से जिंदगी को कैसे शुरू किया जाए।”