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ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं,ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय में 40 साल में 3.9 लाख हेक्टेयर क्षेत्र से ग्लेशियर सिकुड गए हैं - The Indian Exposure

ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं,ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय में 40 साल में 3.9 लाख हेक्टेयर क्षेत्र से ग्लेशियर सिकुड गए हैं

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पर्यावरण में प्रदूषण घुलने के चलते बढ़ रहे ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय में 40 साल में 3.9 लाख हेक्टेयर क्षेत्र से ग्लेशियर सिकुड गए हैं। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। खासकर छोटे ग्लेशियरों पर इसका असर अधिक देखा जा रहा है। चार दशक पहले तक हिमालय रेंज में ग्लेशियर का क्षेत्रफल 30 लाख हेक्टेयर था। इसका खुलासा वर्ष 2002 से हिमाचल प्रदेश के ग्लेशियरों पर शोध कर रहे केंद्रीय विश्वविद्यालय धर्मशाला में पर्यावरण विज्ञान विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अनुराग ने किया।

जेएनयू से छोटा शिगड़ी ग्लेशियर पर पीएचडी करने वाले डॉ. अनुराग ने बताया कि ग्लोबल वार्मिंग का अधिक प्रभाव दो वर्ग किलोमीटर से कम दायरे में फैले छोटे ग्लेशियरों पर पड़ रहा है। ये ग्लेशियर टूट कर तेजी से पिघलने लगे हैं। उन्होंने बताया कि पूरे हिमालय में सिक्किम से लेकर कश्मीर तक लगभग 9,575 ग्लेशियर हैं। सारे ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के कारण निगेटिव द्रव मान संतुलन दिखा रहे हैं, जिस कारण ये अधिक पिघल रहे हैं। इससे इनका क्षेत्रफल घटता जा रहा है। हिमाचल में चंबा जिले में 90 फीसदी तक छोटे ग्लेशियर हैं, जबकि जनजातीय जिला लाहौल-स्पीति और किन्नौर में भी छोटे-बड़े ग्लेशियरों की संख्या 50-50 है। 

भारत में हिमालयी क्षेत्रों में ही हैं ग्लेशियर
भारत में हिमालयी क्षेत्रों में ही ग्लेशियर पाए जाते हैं। पूर्व में सिक्किम, मध्य में हिमाचल व उत्तराखंड और पश्चिम में कश्मीर में ये ग्लेशियर हैं।  

सतत विकास पर ध्यान देने की जरूरत 
ग्लेशियर पर पीएचडी करने वाले डॉ. अनुराग ने कहा कि ग्लेशियरों को बचाने के लिए हमे सतत विकास पर ध्यान देने की जरूरत है। पेट्रोल-डीजल से चलने वालों वाहनों की जगह इलेक्ट्रिक वाहन चलाना, वनों से पेड़ों का कटान रोकना, वनों में आग लगने से रोकना, उद्योगों से निकलने वाले धुएं और प्रदूषण को रोकना और पौधरोपण पर जोर देना होगा। 

नदी-नालों में जा रहा 90 फीसदी ग्लेशियरों का पानी

हिमालयी क्षेत्र में अधिकतर ग्लेशियरों का पानी नदी-नालों में ही जाता है। लाहौल में 90 फीसदी पानी चंद्रा व भागा नदी के अलावा नालों में जा रहा है। हालांकि भौगोलिक परिस्थितियों के चलते कई जगह मार्च-अप्रैल में ग्लेशियरों के पिघलने से झीलें बनती हैं, जो प्रकृति का नियम है

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