
सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट परिसर से मस्जिद हटाने के आदेश में हस्तक्षेप से इन्कार कर दिया। शीर्ष अदालत ने हाईकोर्ट का फैसला बरकरार रखते हुए मस्जिद हटाने के लिए तीन महीने का समय दिया है। साथ ही याचिकाकर्ता वक्फ मस्जिद हाईकोर्ट को वैकल्पिक भूमि के लिए राज्य सरकार के समक्ष प्रतिवेदन करने की अनुमति भी दी।
जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस सीटी रविकुमार की पीठ ने कहा, हमें हाईकोर्ट के आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं नजर आता है। हालांकि यह याचिकाकर्ताओं के लिए खुला होगा कि वे वैकल्पिक भूमि की मांग के लिए राज्य सरकार को एक विस्तृत प्रतिवेदन दें, जिस पर कानून के अनुसार विचार किया जा सकता है।
पीठ ने मस्जिद हटाने का विरोध कर रहे याचिकाकर्ताओं से कहा, भूमि एक पट्टे की संपत्ति थी जिसे समाप्त कर दिया गया था। वे अधिकार के तौर पर इसे कायम रखने का दावा नहीं कर सकते। शीर्ष अदालत वक्फ मस्जिद हाईकोर्ट और उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड की इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी।
तीन महीने में मस्जिद नहीं हटाई तो हाईकोर्ट के पास उसे गिराने का विकल्प खुला
पीठ ने कहा, हम याचिकाकर्ताओं को विचाराधीन निर्माण को हटाने के लिए तीन महीने का समय देते हैं। यदि आज से तीन महीने की अवधि में निर्माण नहीं हटाया जाता है तो हाईकोर्ट समेत अन्य अथॉरिटी के लिए उसे हटाने या गिराने का विकल्प खुला रहेगा।
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मस्जिद प्रबंधन समिति के वकील कपिल सिब्बल ने कहा, मस्जिद 1950 के दशक से है। इसे यूं ही हटाने के लिए नहीं कहा जा सकता। 2017 में सरकार बदली और सब कुछ बदल गया। नई सरकार बनने के 10 दिन बाद एक जनहित याचिका दायर हुई। जब तक वे हमें जमीन उपलब्ध कराते हैं, तब तक हमें वैकल्पिक स्थान पर जाने में कोई समस्या नहीं है।
हाईकोर्ट के वकील राकेश द्विवेदी ने कहा, यह पूरी तरह से धोखाधड़ी का मामला है। दो बार नवीनीकरण के आवेदन आए और कोई सुगबुगाहट तक नहीं हुई कि मस्जिद का निर्माण किया गया था। इसका उपयोग जनता के लिए किया गया। नवीनीकरण की मांग करते हुए कहा, यह आवासीय उद्देश्यों के लिए आवश्यक है। केवल यह तथ्य कि वे नमाज पढ़ रहे हैं, इसे मस्जिद नहीं बना देगा। सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के बरामदे में सुविधा के लिए अगर नमाज की अनुमति दी जाए तो यह मस्जिद नहीं बन जाती।