
देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड में मानसून के दौरान हर साल कुदरत का कहर एक आम दृश्य बनता जा रहा है। राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन (landslide) अब किसी अपवाद नहीं, बल्कि एक नियमित आपदा बन चुका है। एक जनवरी 2015 से लेकर अब तक के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड में कुल 4662 स्थानों पर भूस्खलन की घटनाएं दर्ज हुई हैं, जिनमें सैकड़ों मकान जमींदोज हो गए, हजारों लोग प्रभावित हुए और 319 लोगों की जान गई है।
राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (USDMA) के अनुसार, इन घटनाओं में सबसे ज्यादा प्रभावित ज़िलों में चमोली, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़, रुद्रप्रयाग और टिहरी शामिल हैं। इन जिलों में ऊंचाई वाले इलाके और अस्थिर भूगर्भीय संरचना के कारण, बारिश के दौरान ज़मीन का खिसकना एक सामान्य लेकिन खतरनाक परिदृश्य बन चुका है। कई सड़क मार्ग बंद हो जाते हैं, बिजली-पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं प्रभावित होती हैं, और ग्रामीणों को कई दिनों तक अलग-थलग जीवन बिताना पड़ता है।
विशेषज्ञ मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन, अनियंत्रित निर्माण कार्य, जंगलों की अंधाधुंध कटाई और पर्वतीय क्षेत्रों में अतिक्रमण भी भूस्खलन की प्रमुख वजहों में शामिल हैं। पिछले कुछ वर्षों में चारधाम यात्रा के दौरान भी कई बार यात्रियों को भूस्खलन की वजह से रास्ते में फंसना पड़ा है, जिससे न केवल जानमाल का नुकसान होता है, बल्कि राज्य की आर्थिक व्यवस्था, विशेष रूप से पर्यटन पर भी बड़ा असर पड़ता है।
राज्य सरकार और NDRF, SDRF जैसे राहत बल लगातार काम में जुटे रहते हैं, लेकिन ऐसे प्राकृतिक खतरे के बीच दीर्घकालिक समाधान की आवश्यकता है। भू-वैज्ञानिकों की रिपोर्टों और सैटेलाइट डेटा के माध्यम से संवेदनशील क्षेत्रों को चिन्हित कर, वहां सुरक्षा के व्यापक इंतजाम किए जाने चाहिए।
भविष्य में यदि उत्तराखंड को सुरक्षित रखना है, तो केवल तात्कालिक राहत कार्यों से नहीं, बल्कि दूरदर्शिता से लिए गए पर्यावरण-संरक्षण और भू-संरचना संतुलन के निर्णयों से ही संभव हो पाएगा।