
नई दिल्ली में महरौली पुरातत्व पार्क और संजय वन क्षेत्र में स्थित ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व वाली संरचनाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को अहम फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को पार्क के भीतर स्थित स्मारकों की निगरानी और देखरेख पर विचार करना चाहिए। अदालत ने साफ किया कि इन स्मारकों को ध्वस्त करने या उनमें किसी प्रकार का नया निर्माण करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
यह मामला 700 साल पुरानी आशिक अल्लाह दरगाह और सूफी संत बाबा फरीद की चिल्लागाह से जुड़ा है। याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की थी कि इन ऐतिहासिक संरचनाओं को “अतिक्रमण” बताकर गिराया न जाए, बल्कि इन्हें संरक्षित स्मारकों की तरह सुरक्षित किया जाए। जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि अदालत पहले ही 28 फरवरी को यह आदेश दे चुकी है कि हमारी अनुमति के बिना इस क्षेत्र में किसी प्रकार का नया निर्माण, विस्तार या परिवर्तन नहीं किया जाएगा।
पीठ ने दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) से सवाल किया कि आखिर इतनी जल्दी इन संरचनाओं को ध्वस्त करने की आवश्यकता क्यों महसूस हो रही है। डीडीए ने दलील दी कि वह दरगाहों के खिलाफ नहीं है, लेकिन आसपास कई अन्य अनधिकृत संरचनाएं खड़ी कर ली गई हैं। प्रश्न यह है कि कौन-सा हिस्सा वास्तव में ऐतिहासिक स्मारक है और कौन-सा अतिक्रमण। अदालत ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि स्मारक का संरक्षण आवश्यक है और कोई भी नया निर्माण नहीं होना चाहिए।
याचिकाकर्ता ने अपनी दलील में कहा कि ये स्मारक अतिक्रमण नहीं हैं, बल्कि सदियों से इस क्षेत्र में मौजूद हैं। उन्होंने कहा कि भले ही इन्हें आधिकारिक तौर पर “केंद्रीय संरक्षित स्मारक” का दर्जा नहीं मिला है, फिर भी एएसआई इनकी मरम्मत और देखरेख की निगरानी कर सकता है।
🕌 एएसआई की रिपोर्ट
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने अदालत में बताया कि महरौली पुरातत्व पार्क के अंदर स्थित आशिक अल्लाह दरगाह और बाबा फरीद की चिल्लागाह धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। यहां मुस्लिम श्रद्धालु प्रतिदिन दर्शन और प्रार्थना के लिए आते हैं। एएसआई ने बताया कि दरगाह पर मौजूद शिलालेख यह प्रमाणित करता है कि आशिक अल्लाह की कब्र का निर्माण वर्ष 1317 ईस्वी में किया गया था। हालांकि, समय-समय पर हुए संरचनात्मक बदलावों ने इसकी ऐतिहासिकता को प्रभावित किया है।
एएसआई ने यह भी दलील दी कि यह स्थल पृथ्वीराज चौहान के गढ़ के पास स्थित है और “प्राचीन स्मारक व पुरातत्व स्थल एवं अवशेष अधिनियम” के तहत 200 मीटर के नियामक क्षेत्र में आता है। इस कानून के अनुसार, किसी भी मरम्मत, नवीनीकरण या नए निर्माण कार्य के लिए सक्षम प्राधिकरण से पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य है।
📝 क्या है पूरा मामला
यह मामला जमीर अहमद जुमलाना की याचिका से जुड़ा है, जिसमें उन्होंने दिल्ली के महरौली पुरातत्व पार्क के अंदर मौजूद ऐतिहासिक धार्मिक संरचनाओं को बचाने की मांग की थी। उनकी अपील में कहा गया था कि डीडीए इन संरचनाओं को अतिक्रमण बताकर हटाने की योजना बना रहा है, जबकि ये दरगाहें 12वीं और 13वीं शताब्दी से इस क्षेत्र का हिस्सा हैं। जुमलाना ने 8 फरवरी को दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
📌 सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर सुनवाई करते हुए कहा कि अदालत का मकसद किसी धार्मिक विवाद में पड़ना नहीं है, बल्कि ऐतिहासिक स्मारकों का संरक्षण सुनिश्चित करना है। कोर्ट ने यह कहते हुए अपील का निपटारा किया कि एएसआई को इन दरगाहों और आसपास के स्मारकों की मरम्मत और रखरखाव पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
👉 इस आदेश को विशेषज्ञ ऐतिहासिक धरोहरों की सुरक्षा की दिशा में एक बड़ा कदम मान रहे हैं। अदालत का यह फैसला न केवल महरौली पुरातत्व पार्क के लिए, बल्कि पूरे देश में मौजूद ऐतिहासिक स्थलों के संरक्षण के लिए एक नई मिसाल साबित हो सकता है।